कोरोना के काल में ,निकलें बाहर लोग।
कितना ही समझा चुके,समझें ना यह रोग।
जहाँ कहीं भी जाइए ,मचा हुआ है शोर।
कलयुग के इस दौर में ,चले न कोई जोर।
संस्कार जिनमें भरे, मिले लोग हैं चंद।
संस्कारी होने का ,अलग होय आनंद।
सर्दी के इस मौसम में ,ऐसी चले बयार।
थरथर काँपे लोग हैं,मचि है हाहाकार।
3.46pm 20 Jan 2021
बहुत खूब संगीता जी
ReplyDeleteबहुत खूब संगीता जी
ReplyDeleteबहुत खूब संगीता जी
ReplyDeleteबहुत खूब संगीता जी
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत उत्तम और हकीकत भी।
ReplyDeleteआप दोहे भी लिख लेती हैं।
धन्य हो।
धन्यवाद
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