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Friday, 9 May 2025

A+ 3105 ग़ज़ल देखने की चीज़ है


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क़ाफ़िया आरी

रदीफ़ देखने की चीज़ है

माना उनकी होशियारी देखने की चीज़ है।

पर अभी ईमानदारी देखने की चीज़ हैl

हुस्न उनका क्या ही कहें, क्या कहें उनका ग़ुरूर।

क्या कहें, सारी की सारी देखने की चीज़ है।

देख कर उनकी लगन क़ायल हुआ था काम का।

जो अभी तक भी है जारी देखने की चीज़ है। 

जिसने दुनिया देखी नहीं, और न करता काम भी।

उसने ली है ज़िम्मेदारी देखने की चीज़ है।

जब दबा मुंँह में मरोड़े उसका कोना वो कभी।

उस दुपट्टे की किनारी देखने की चीज़ है।

प्यार में उसके तड़प जब, उठती सीने में कभी।

कैसे गुज़रे दिन वो भारी देखने की चीज़ है।

पल भी हम कैसे गुज़ारें, टीस उठती सीने मेंं।

दिल को मांँगे बन भिखारी देखने की चीज़ है।


खेल जिसकी वो सिकंदर, जीता उससे कौन कब।

'गीत' क्यों बाज़ी वो हारी देखने की चीज़ है।

9.13pm 9 May 2025

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