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Thursday, 13 October 2016

226 कुछ तो सोच

जान पर खेल जाते हैं लोग अपने हक की खातिर।
एक वो है कि उन पर कुछ असर ही नहीं।
 पहले तो कोई मरता था तो पन्नों पर उसका नाम था।
आज कौन-कौन, कहांँ-कहांँ मर रहा है कुछ खबर ही नहीं। 
अब तो जाग ओ सोने वाले, कुछ तो होश कर। तेरा दिल इंसान का है या पत्थर का जिस पर असर ही नहीं। 
यूंँ तो तूने लाखों को जिंदा ही मार दिया है।
क्या यह सब तेरी कुर्सी के लिए तलब ही नहीं। 
छोड़ दे अब यूंँ तू खून पीना बेगुनाहों का।
यूँ लोगों के खून से खेलने खेलने क्या ग़दर ही नहीं।
कुछ लोगों को तू घर से महल में ले जा रहा है। उनको तो देख जिनके, पास चलने को सड़क ही नहीं।
आज़ाद देश के लोगों को भी गुलाम बना रक्खा है।
क्यों दबा रहा है उन्हें, जैसे ज़िंदगी पर उनका कोई हक़ ही नहीं।
8.pm 17 Oct 1990
      


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