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Friday, 12 September 2025

3227। धरती कहती, "जल, जल्लाद नहीं।"



क्यों जल को जल्लाद कहते हो। 

चली गया था हांँ छुट्टी पर।

आपने ही तो भेज दिया था मुझे।

हर तरफ पड़ गया था सूखा।

कहांँ बचे हैं पेड़ जिससे मुझको नरमायी मिलती।

अकड़ गया था मेरा पेट भी।

कारण तुम ही थे, 

सब हरे भरे पेड़ तुमने ही तो काटे थे।

बहुत कोशिश की मैंने खुद को संँभालने की।

कई बार खुद से पेड़ उगाने की।

हर बार तुम काटते गए, छलनी करते गए मेरा सीना।

कब तक मेरी पाचन शक्ति की परीक्षा होती।

मैं कठोर नहीं, बहुत कुछ सहा है मैंने।

मुझे क्यों धिक्कारते हो, खुद से पूछो।

हर किसी को अपने किए की सज़ा भुगतनी ही पड़ती है।

तुम जानते हो जो बाप करता है,

बेटे को उसका फल भोगना ही पड़ता है।

थक गई थी मैं भी। 

यह मेरी अपाचनता का ही नतीजा है,

जो जल के रूप में तुम तक पहुंँचा है।

तुम जानते हो तुम्हारा शरीर भी तो ऐसे ही है,

सूखा पड़ जाए तो क्या होता है।

पानी नहीं पीते क्या होता है।

खाने का संतुलन बिगड़ जाए तो क्या होता है।

क्या दस्त और उल्टी नहीं करते तुम।

मैं भी वही हूंँ। 

तुम्हारा शरीर अपने आप में एक धरती है।

और मैं भी एक पूर्ण धरती मांँ।

जो सब कुछ सह कर अंत में हार कर,

अपने जीवन के लिए यह सब करती है।

ताकि सबका जीवन समाप्त न हो जाए।

 कारण तुम ही हो।

 मुझे मत कोसो।

मत कहो मुझे कुछ,जल जल्लाद नहीं।

10.17am 12 September 2025

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