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Monday, 18 January 2021

1530 ( हास्य व्यंग कविता) हर जगह कुर्सी का खेल

 एक था ऑफिस बहुत बड़ा ।

जहाँ कुर्सियों का था ढेर लगा ।

एक मानव को चस्का  लगा।

भाँत भाँत की कुर्सियां इकठ्ठी करने लगा।

रोज सोचता किस कुर्सी पर मैं बैठूँ। 

और उस कुर्सी पर बैठ में ऐंठूँ। 

जिस कुर्सी पर बैठना चाहता ।

उस कुर्सी को उठा ले आता।

लॉकडाउन का उसने फायदा उठाया।

लड़कियों की कुर्सियां उठा ले आया। 

सोचता दिन भर करती है आराम ,

और करना पड़ता हमको काम।

चाहे कोई हो गर्भवती चाहे बच्चा जन के आए। 

पर उसको तो लड़कियों की ही कुर्सी नजर   भाए।

फिर कुर्सी चोर नाम पड़ गया उसका।

इस पर भी उसका हटा ना चस्का। 

कुर्सी पर बैठ वह फूला ना समाता। 

कभी एक ,कभी दूसरी पर बैठ, मन बहलाता।

सब उस पर तरस खाने लगे। 

उसकी बातों कर सब मन बहलाने लगे।

कहने लगे सब ,एक दिन अच्छा होगा ।

भगवान की कृपा हुई तो, पगला अच्छा होगा।

2.00pm 18.Jan 2021