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Sunday, 30 November 2025

Aa+ 3309 ग़ज़ल जब शाम ढलती है

 


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क़ाफ़िया आती

रदीफ़ है जब शाम ढलती है

 तुम्हें क्या याद मेरी आती है जब शाम ढलती है।

कसक तड़पा के दिल को जाती है जब शाम ढलती है।

अकेले शाम को जब याद तुम आ जाते हो, तुम बिन।

मेरी जल जाती दिल की बाती है जब शाम ढलती है।

सफ़र कितना भरा हो मुश्किलों से, पार कर लूँगा।

सितम यह ज़ीस्त कितने ढाती है जब शाम ढलती है।

किसी ने तोड़ा दिल मेरा, कही थी बात जब ऐसी।

वो इक इक बात मुझको खाती है जब शाम ढलती है।

तेरे वह मखमली गेसू जो उड़ते हैं हवाओं में।

चुनर जैसे कोई लहराती है जब शाम ढलती है।

हुए हो दूर जब से, प्यार में यह याद ए तन्हाई,

नहीं तुम जानते, तड़पाती है जब शाम ढलती है।

कभी जब याद आती हम मिले थे राह में जिस दिन।

मेरे दिल की कली मुस्काती है जब शाम ढलती है।

उन्हीं फिर रेशमी यादों को सिरहाने मैं रखता हूंँ।

कोई जब 'गीत' कोयल गाती है जब शाम ढलती है।

3.30pm 30 Nov 2025

1 comment:

Anonymous said...

सुंदर सृजन