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Wednesday 29 January 2020

1175 क्या करें क्या ना करें

तुम कहते हो इधर जाओ ,तो कभी कहते हो उधर जाओ।
हम जाएं भी  तो किधर जाएं , हमको कोई राह नहीं मिलती।

अंधेरा है राह का इतना गहरा, ना चांद की चांदनी है।
 थके हुए इह  राहगीर को ,ठहरने को पनाह नहीं मिलती।

इशारा मिले तो ले जाऊं मैं अपनी कश्ती को उस तरफ।
पर क्या करूँ रास्ता है जिधर ,उधर की हवा नहीं मिलती।

पाए हैं जख्म इस राह पर अपनों से ऐसे ऐसे मैंने।
करता ही रहता हूं दवा इनकी, मगर दुआ नहीं मिलती।

कैसा है  ये दस्तूर  ए ज़माना ,देखकर  हैरान हूँ  मैं।
जख्मी दर्द में, देने वाले को सजा नहीं मिलती।

2.54pm 29Jan 2020 Wednesday 

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