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Sunday, 19 September 2021

1774 ग़ज़ल : Ghazal :कहीं भी कश्ती को फिर तो ,नहीं मिलता किनारा है‌

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धुन: भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहां जाएं

काफि़या आरा

रदीफ़ है


न जाने इन हवाओं ने किया अब क्या इशारा है ।

उमड़ती सी घटाओं ने,सनम तुझको पुकारा है ।


न जाने बोलते हैं क्या ये बादल घोर गर्जन से।

न जीना इन फिजाओं में हमें अब तो गवारा है ।


हवाएं जोर से चलती, बरस जातें है बादल जब।

कहीं भी कश्ती को फिर तो ,नहीं मिलता किनारा है‌।


कभी तूने न जाना दिल ,मेरा कितना तुझे चाहे।

कि देखा जब से तुझको है,हुआ ये तो तुम्हारा है ।


ये दुनिया हो गई दुश्मन तमन्ना की तेरी जबसे। 

कहीं भी अब नहीं मुझको किसी का भी सहारा है ।


तेरे बिन मिल रही हमको है तनहाई व रुसवाई ।

तू मिल जाए अगर मुझको, तो हर लम्हा हमारा है ।


कि आके मिल जा अब तो तू, खड़े हैं तेरी राहों में ।

बिना तेरे कहां मेरा घड़ी भर भी गुजारा है।


4.05pm 16 Sept 2021

1 comment:

Rashmi sanjay said...

बहुत खूब