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Saturday, 18 January 2025

A+ 2994 ग़ज़ल पड़ गया महंँगा

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क़ाफ़िया आना

रदीफ़ पड़ गया महंँगा

नए इस दौर में दिल का लगाना पड़ गया महंँगा।

बढ़ी नजदीकियांँ मिलना मिलाना पड़ गया महंँगा।

जवां दिल करते बातें आजकल तो रेस्तरां जाकर।

कहें क्या मजनूँ को तो बिल चुकाना पड़ गया महंँगा।

थे करते बात हंँस हंँस के मिला करते थे जब भी हम। 

लगी दिल पर जो बातें फिर , बनाना पड़ गया महंँगा।

थी चाहत बात करते रात में जब चांँदनी घुलती।

मगर उस रात में तुमको बुलाना पड़ गया महंँगा।

वो जाने क्या तड़प दिल की हमें जीने नहीं देती।

हुई कुछ बात उनका रूठ जाना पड़ गया महँगा।

न खोली थी जुबां जब तक सभी कुछ अपने बस में था।  

जुबां से हाल दिल का तो बताना पड़ गया महंँगा।

छुपा लेते जो दिल की बात दिल ही में तो अच्छा था। 

तड़प अब 'गीत ' दिल की तो दिखाना पड़ गया महंँगा।

2.40pm 18 Jan 2024

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