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Thursday, 17 July 2025

3174 ग़ज़ल अपनी जगह

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क़ाफ़िया ई 

रदीफ़ अपनी जगह

ज्यूँ हवा की है कुछ, होती अपनी जगह। 

त्यूँ है उसने बना ही ली अपनी जगह।

होगा वह चाहे कितना बड़ा ही वहांँ।

पर यहांँ तो है कुछ मेरी अपनी जगह।

झाड़ता रौब वो सबके था सामने। 

पर समय ने दिखा दी थी अपनी जगह।

यूँ न इज्ज़त गँवाता सभा में अगर,

होती उसको पता उसकी अपनी जगह।

बात कितनी वो उछली इधर से उधर।

घूम कर अंत में आई अपनी जगह। 

ढूंँढनी पड़ती हरदम इधर और उधर। 

ढूंँढती चीजें क्यों, रखती अपनी जगह।

चीज़ गर घर रखी होती अपनी जगह।

चीज फिर वो तो मिलती भी अपनी जगह। 

'गीत' समझाना चाहती है तुमको सभी। 

अहमियत कितनी है रखती अपनी जगह।

3.35pm 17 July 2025

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