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Tuesday, 26 November 2024

2942 ग़ज़ल : ये जिंदगी लाचार हो गई

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क़ाफ़िया आर रदीफ़ हो गई

Qafia aar Radeef ho gai

आंँखें मिली तो दिल के, नज़र पार हो गई।

तब से लगा ये जिंदगी लाचार हो गई।

बिन चैन और करार मेरी जिंदगी चली।

अच्छी भली थी बिन कोई आकार हो गई।

जिस राह में बिछे कभी रहते थे फूल अब।

वो राह अब कतार भरी खार हो गई।

मैं थक गया इलाज मेरे गम का न हुआ।

अब मौत की खुदा से है दरकार हो गई।

सोचा था सीधी साधी कटेगी ये ज़िंदगी। 

ये ज़िंदगी मेरे लिए दुश्वार हो गई।

चाही थी फूल जैसी मैंने ज़िंदगी मगर।

अब क्या कहूंँ ये ज़िंदगी तो भार हो गई।

दुश्मन बनी यह 'गीत' की चाहा जिसे सदा।

यह दुश्मनों की जाके मेरे यार हो गई।

3.54pm 26 Nov 2024

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