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Thursday, 24 April 2025

A+3090 ग़ज़ल रातभर


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क़ाफ़िया रातभर 

रदीफ़ रातभर

क्यों था तूने बेवजह, मुझको सताया रात भर।

और रहा था चांँद भी धीरे से चलता रातभर।

काटनी मुश्किल बहुत थी इक तरफ तो रात ये।

उस पे वादा करके मुझको, तू न आया रात भर।

जब यह जाना काटना है सारा जीवन तेरे बिन। 

जाग कर किस्से मैं खुदको था सुनाता रात भर।

रात हो रंगीन जाती, चांँदनी चुभती नहीं।

आके मेरे पास जो तू बैठ जाता रात भर।

मैं अकेला ही रहा था इस सफ़र में आज तक। 

काश होता संग तू और साथ चलता रात भर।

पूछता मुझको तू क्या है, शब गुज़ारी किस तरह।

बैठकर तारे गिने और चांँद देखा रात भर।

जान पाया था न कोई, गम का मेरे कुछ सबब। 

खुद कहाँ मैं जान पाया जबकि सोचा रात भर।

'गीत' दुनिया तो न समझेगी तेरे इस हाल को। 

जागता यह सोच कर तू क्यों है रहता रात भर। 

12.32pm24 April 2025

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