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Monday, 17 March 2025

3052A+ ग़ज़ल आजकल

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क़ाफ़िया ई

रदीफ़ है आजकल

नज़र मिली ये तबसे ही तड़प उठी है आजकल।

है मयकदे का साथ छाई बेख़ुदी है आजकल।

है ग़म तुझे कोई तो वो मुझे बता मेरे सनम।

यूँ चेहरे पे तेरे छाई क्यों ग़मी है आजकल।

वो छोड़कर मुझे लगे हैं ग़ैर के गले से जा।

करें मज़े वो, मेरी जान पर बनी है आजकल।

मैं घुल रहा हूँ ग़म में अपने, जीना रास आए कब।

नहीं है आती दूर तक नज़र ख़ुशी है आजकल।

जिसे भी चाहा वो चला गया मुझे यूंँ छोड़कर।

ज़माना कैसा, कैसी ये हवा चली है आजकल।

गुज़र रही मेरी यूंँ ज़िंदगी कि क्या बताऊंँ मैं। 

जो पढ़ना चाहो तो पढ़ो, ग़ज़ल लिखी है आजकल।

दे धोखा तुम जो 'गीत' को, चले हो ग़ैर संग अब ।

कहो वो बात सच है क्या, जो चल रही है आजकल।

5.37pm 16 March 2025