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क़ाफ़िया आ
रदीफ़ आदमी पर
क्यों करे कोई भरोसा आदमी पर।
जब यकीं ही न रहा था आदमी पर।
अपनी ही बस आदमी को अब पड़ी है।
छुप के अब है वार करता आदमी पर।
प्यार ही है जिंदगी और है खुशी भी।
कितना बोला, कुछ न समझा, आदमी पर।
कोई कहता है कहे, कुछ क्यों सुने हम।
अब भरोसा क्यों है करना आदमी पर।
सह न पाया था ज़रा भी बात को वो।
जब लगा इल्ज़ाम कुछ था आदमी पर।
है समां ऐसा, किसी का कौन है अब।
आदमी ही वार करता आदमी पर।
हर कदम पर पांँव रखना सोच कर अब।
अब भरोसा तू न करना आदमी पर।
यूंँ भरोसे के तो यह लायक नहीं है।
'गीत' करना पर पड़ेगा आदमी पर।
3.40pm 18 May 2025
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