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Friday, 30 May 2025

3124 ग़ज़ल अंँधेरा


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क़ाफ़िया आ

रदीफ़ अँधेरा

इतना जग में जो फैला अंँधेरा।

दूर कैसे ये होगा अंँधेरा। 

इंसां इंसां का दुश्मन बना है। 

हर तरफ ही है छाया अंँधेरा। 

कल की सुबह तो लाएगी सूरज।

क्या हुआ आज आया अँधेरा।

हर तरफ जब उजाले ही होंगे।

ज्ञान देगा यह कल का अंँधेरा।

वक्त का कुछ भरोसा नहीं है।

हो किसी पल भी जाता अंँधेरा।

अहमियत हर किसी की है होती। 

जैसे दिन की है वैसा अंँधेरा।

यह अंँधेरा भी सुख हमको देता।

अहमियत कुछ तो रखता अंँधेरा।

'गीत' डरना अंँधेरों से ना तुम।

चलता रहता सवेरा अंँधेरा।

4.21pm 30 May 2025

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