चलो इक बार आज फिर शरारत करते हैं।
एक बार फिर अपने बचपन को याद करते हैं।
मैं तुझ को छूकर भागूँ, तू मुझे छू लेना।
चलो फिर किसी बात पर झूठ मूठ सा लड़ते हैं।
मान जाते थे जैसे खुद ही दो मिनटों में।
चलो फिर उसी तरह से आज हम झगड़ते हैं।
भूलकर आज के सब झंझट और झमेले।
चलो बचपन की गलियों में आज निकलते हैं।
दौड़ना ना सही, उन कटी पतंगों के पीछे,
चलो किसी शांत जगह बैठ उनको तकते हैं।
लुका छिपी का खेल बहुत दिखाया जिंदगी ने।
आओ वही बचपन वाली लुक्का छिप्पी करते हैं।
मन तो अभी भी बच्चा है ,बातें वैसी करते हैं।
सोच में ही दौड़ लेते हैं, चाहे पैर न चलते हैं।
नाव पानी में चला,कीचड़ में छप छप करते है।
आओ चलो बरखा में जरा बाहर निकलते हैं
आओ भूल जाएं यहाँ खुद को और सबको।
बस अब हम क्या कर रहे हैं यही सोचते हैं।
बातें नहीं करेंगे ,घर की और बाहर की।
खेल खेल के खेल खेल में दिल हल्का कर लेते हैं।
तू रूठ ,कभी मैं रूठूँ ,चलो फिर मनाते हैं।
बेकार की बातें कर, मन हल्का कर लेते हैं।
क्या यह हो सकता है ? सोचने में क्या जाता है।
सोच रहा हूँ,चल सोच कर ही कर लेते हैं।
9.56am 4 Sept 2020 Friday
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