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Sunday, 20 September 2020

1410 गज़ल (Gazal) तेरी यादों का जबर

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काफि़या ( Qafiya) अर

रदीफ (Radeef)  में

क्यों हमें तडपा रहे हो तुम अजी अब इस  सहर में।

आते हो तुम हमें क्यों  याद हरदम हर पहर में।


 बैठे रहते हम बना तनहाइयों को साथी अपना।

चाहे रहना है बहुत  मुश्किल तेरी यादों के नगर में।


सोचता हूं मैं कभी की भूल जाऊं याद तेरी 

पर नजर आ जाती हो तुम आज भी लचकी कमर में।


कशमकश  ही है लगी  रहती कि  तुझको भूलना है। 

सोचता हूं  भूल पाएंगे कहाँ हम इस बसर में।


यूँ बहुत ही तंग करती हैं मुझे ये तेरी  यादें

क्या जी पाऊँगा ,गया जो भूल  तुमको भी अगर मैं।


सोचकर अच्छा लगे है कोई जीने का सहारा

अब जी लेता हूं चलो तुम्हारी यादों के शरर में।

जबर -अत्याचार

शरर -अग्निकण

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