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Wednesday, 9 September 2020

1399 बचपन के किस्से ,बचपन में ही रह गए

 बचपन के किस्से कहीं ,बचपन में ही रह गए ।

जवानी आई तो ,ख्वाब बचपन के ढह गए।


बड़ी मेहनत से,कश्ती सजाई  अरमानों की।

कश्ती चलने से पहले, ही किनारे बह गए।


अपनी दोस्ती पर ,बहुत भरोसा था हमें।

वह पर जाने क्यों,सब के आगे सब कह गए।


कहीं हो जाए न बदनाम ,दोस्ती हमारी ।

इसलिए ही सब तोहमतें, चुपचाप हम सह गए।


बड़ा गुमान करते थे ,खुद पर और होसलों पर ।

ठोकरें ऐसी  लगी, कि हौसले सब लह (उतर) गए।



जिंदगी जो  गुजरी ,साथ उनके,हसीन थी ।

पता ही न चला पर , कब आए कब वह गए।


12.27pm 9 September  2020 Wednesday 


1 comment:

Unknown said...

अच्छी तुकबन्दी है और कमाल की बात तो ये है कि धीरे धीरे पढ़ो तो मजा ये है शब्द सरल हैं किंतु भावनाएं गहरी हैं। दिल को छू लेने वाली रचना।