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Friday, 18 June 2021

1681 जिंदगी की शाम है ढलने लगी

 दौड़ता फिर रहा हूँ, इधर से उधर ,

जिंदगी की शाम है,ढलने लगी ।

सोचता हूँ करूँगा आराम यह करके ,

हर रोज नयी ख्वाहिश है पलने लगी ।


भागता ही रहता हूँ इधर से उधर,

 रास्ता मंजिल का कम होता नहीं।

छाँव ढूंढता हूँ रहता, मैं ठंडी कोई ,

राह में पर ऐसा कोई पेड़ होता नहीं ।


कब तक यूँ ही चलता रहूंगा मैं,

आस रुकने की दिल में लिए ।

क्या तभी रुकूंगा मैं जब ,

बुझ जाएंगे जिंदगी के दिये।


समझ है मुझे सब मगर मैं 

मानता नहीं अपने दिल की कभी ।

कैसे सुनुँ बात इसकी मैं , 

शोर ही शोर है हर तरफ हर कहीं।


बहुत बो लिये तमन्नाओं के बीज,

 नहीं चाहता मैं और इनको बोना ।

मिले आराम पल भर को मुझे अब, 

चाहता हूँ कुछ देर शांति से सोना।

10.07pm 18 June 2021