Followers

Tuesday, 27 October 2020

1447 गज़ल : बहर

  122 122 122 12212

काफि़या ( Qafiya)अर

रदीफ (Radeef)  में

जनाजा खयालों का निकला है अब, सहर में।

 गए फंस हम तो गज़ल की यहाँ बहर में।


रहे सोचते की सही  हो  ही जाएगा सब

बुरे फंसे पर हम, यहाँ बहर की लहर में।


के कैसे कहें क्या कहें/ समझे हम कुछ नहीं

 झुकाए हैं बैठे यहाँ सर को हम कहर में।

 

हुआ दिल है सूना,के गुमसुम हुए ख्याल।

के आए हैं जब से यहाँ बहर के शहर में


कभी सोचता हूं ले ही लूँ मैं इससे तलाक 

के शायद मिले कोई अब ख्याल ही, महर में।

 

गजल  जीने भी , मरने भी तो नहीं देती है। 

है क्या गजल ए तख्ती की इस लहर के जहर में।


किया जाए क्या और कैसे किया जाए ये, 

यही सोचता ही मैं रहता हूँ हर पहर में।

12.44 22 Oct 2020

No comments: