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Monday, 6 August 2018

639 सोच (Soch)

शाम होती है, तो कुछ सोचने लगता हूँ।
मन को अपने मैं ,खोलने लगता हूं।
गहरे समंदर में गोते खाते हुए,
एक एक मोती , टटोलने लगता हूं।
कितना खजाना छुपा है मेरे भीतर,
 यह खुद मैं नहीं जानता।
एक एक कर जब पीछे देखता हूं,
तो मोतियों को बटोरने लगता हूं।
यूं ही मेरा खजाना बनता जाता है,
यूँ ही मेरी जायदाद बनती है।
 एक एक मोती पिरोते  हुए ,
मेरी कायनात बनती है।
यूं ही मैं धीरे-धीरे अमीर बन गया।
यूं ही मेरी शब्दों की जागीर बन गई।
यूं ही रोज के ख्यालों को पिरोता गया,
 और मेरी तकदीर बन गई।
यूं ही जब शब्द जुड़े शब्दों से
तो यह तस्वीर बन गई।
इन्हीं शब्दों से मेरी तकदीर बन गई।
05.15 pm 5Aug 2018 Sunday

Shaam Hoti Hai To Kuch Sochane Lagta Hoon.
Man ko apne me Kholne lagta Hoon.
 Gehre Smandar mein Gote Khate huye.
Ek ek Moti totalne lagta Hoon..
Kitna Khazana Chupa Huahai mere Bhitar.
Yeh Khud Main Nahi Janta.
Ek ek Karke Piche dekhta hoon.
 Tuo Motiyon Ko Batorne lagta Hoon.

Yuhi Mera Khazana Banta Jata Hai.
Yun hi MeriJaaydad Banti hai.
Ek ek Moti Pirote huye.
Meri kaynat Banti hai.
Yuhi Mein Dheere Dheere Amir ban gaya.
Yun hi mere shabdon ki Jagir  ban gayi.
Yun hi roz ke Khayalon Ko Pirotaa gaya.
 Aur meri Taqdeer ban gayi.

Jab Shabad Jude shabdon se.
Tu Yeh Tasveer ban gayi.
Inhin shabdo Se Meri Taqdeer ban gayi.

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