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Monday, 2 August 2021

1726 प्रकृति का उपहार

 छील छील पहाड़ों को तूने बनाई राह ।

सोचा नहीं पहाड़ कैसे उठाएगा, अपनी चोटी का भार।

पेड़ पौधे पकड़ के ,बैठे थे मिट्टी और पत्थर ।

उन सबको उखाड़ कर ,तूने  बना दिया पथ ।

बिस्फोट कर नीचे, तू अपना रास्ता बनाता गया।

पूरा बोझ बेचारा पहाड़ ,एक टांग पर उठाता गया ।

जगह जगह तुमने उसको अलग-थलग कर दिया।

उसी बात का देख ,आज क्या ये नतीजा हुआ ।

खड़ी पहाड़ियाँ आज हो रही हैं ज़मीदोज़।

 तूने कहाँ सोचा था, ऐसा भी होगा किसी रोज ।

तू सोच रहा था यह मानव की तरक्की है ।

नहीं जानता था, अंत करने वाली  सृष्टि है ।

संभलना है तो संभल ,प्रकृति का कुछ नहीं जाता।

वो बना लेती है अपने लिए कहीं से भी रास्ता ।

जो तू करता काम अपने, संभाल कर इसको ।

तो यह इनाम न देती, आज प्रकृति तुझको।

4.08pm 30 July 2021

2 comments:

Saras said...

Development exposed. Man is led to his own ruin.

Dr. Sangeeta Sharma Kundra "Geet" said...

True🙏🏻🙏🏻