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Wednesday, 4 August 2021

1728 गीत: कहीं तो होता घर मेरा

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कहीं तो होता घर मेरा ,कहीं तो मैं भी बस जाता ।

तुझे ही देख कर जीता ,तुझे ही देख मर जाता ।


न तन्हाई ही होती और ,न करता गम बसेरा फिर ।

यूँ ही खिलते सुमन और फिर ,यूँ ही बादल बरस जाता।


तड़प होती न दिल को और, न आहें भरता यादों में ।

तू होती सामने फिर गम , मेरा सारा ये टल जाता ।


हवाओं में फिजाओं में ,जो खुशबू तेरी आ जाती ।

मेरी हर साँस में तेरा  इतर फिर घुल के उड़ जाता ।


बहुत है हो चुका अब तो बहाने छोड़ दे सारे।

के आजा मेरी गलियों में ,तेरा क्या इसमें है जाता ।


के गाँएंगे सुनाएंगे ख़ुशी के अब तराने हम।

के होती जिंदगी आसां के घर मेरा भी खिल जाता।


धुन : चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों।

2.37 pm 3 Aug 2021

2 comments:

Paramjit said...

Aesthetic poem and so close to reality

Dr. Sangeeta Sharma Kundra "Geet" said...

Thanks ji