गर्मी ...गर्मी का क्या है ,
मानो तो गर्मी ..न मानो तो गर्मी कहाँ ।
पूछो तो जरा पशु पक्षियों से ,
कैसे गर्मी से खेल रहे हैं ।
एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर झूल रहे हैं ।
अपने काम में लगे हुए,
कैसे मौसम की मार झेल रहे हैं ।
कोई कसूर नहीं है उनका,
फिर भी ...देखो... बैठे हैं ।
मानुष के तो कर्म सामने आए हैं ,
फिर क्यों इतने अधीर बैठे हैं ।
गर्मी... गर्मी का क्या है ...
मानो तो गर्मी न मानो तो गर्मी कहाँ।
अब भी समय है ,सुधर जा मानव
पर ...कहाँ इसको सुधरना है ।
इसको तो तरक्की अपनी शर्तों पर करनी है,
धरती का कहाँ कुछ सोचना है।
माँ माँ कहते रहते हैं पर,
मांँ की भी किसको कदर यहाँ।
काश..मानव पशु ही बन जाता ,
कम से कम इस धरती का ,
यह हाल तो न कर पाता ।
जी लेता जैसे रखती धरती माता ,
फिर चाहे जो हो जाता।
1.38pm 5 july 2021
1 comment:
बहुत सुंदर भाव👌👌
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